फर्जंद अहमद, इंडिया टुडे , १० अक्टूबर २००६
एक नौजवान शोधकर्ता ने इसराइल की धरती से कभी गायब हुए एक कबीले के वंशजों को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सेट धूल-ढूस्रीत कस्बे में खोज निकाला
इस ज़माने में भी बदल (बदला) , नन्वातई (शरण) अउर मेल्मास्ताया (मेजबानी) नाम के तीन शब्दों से परिभाषित होने वाली अपनी आन-बाण-शान को बचाने के लिए जीने-मरने वाले आफ्रीदियों के विचित्र संसार में आपका स्वागत है। ये लडाकू पठान क़बायली अफगानिस्तान- पाकिस्तान की सीमा पर फैले किसी ऊबड़-खाबड़ इलाके में नहीं, बल्कि नवाबी लख न ऊ के बाहरी हिस्से में बसे छोटे से कस्बे मलीहाबाद में रहते हैं, जो दुनिया भर में अपने मीठे तथा खुशबूदार दशहरी आम और उर्दू तथा फारसी की बहतरीन शायरी के लिए प्रसिद्ध है। इस धूल-ढूस्रीत कस्बे में घुसते ही बाब-ऐ-गोया नाम का एक विशाल तोरण द्वार आपका स्वागत करेगा। इसका यह नाम मशहूर योद्धा और शायर गोया के नाम पर है । कुछ ही फर्लांग दूर कसर-ऐ-गोया नामक २०० साल पुराना महल है। इसके लान में क़दम रखते की अस सलाम अले कउम की द्रिड आवाज़ आती है । लंबे, ९१ वर्षीय कवि कमाल खान अपने दीवान से उठकर खड़े हो जाते हैं और "सैफ- ओ - कलम की धरती पर आपका स्वागत है" कहते हुए हाथ मिलाते हैं। वह अवध के निवासी नहीं लगते। उन्हें देखकर यह भी नहीं लगता की उनकी उम्र ढल रही है। कस्बे के आफरीदी पठानों में से यह खान बड़े गर्व से याद करते हैं, "मैंने सूना है की हमारे पुरखे इसराइल के थे , पर हम यहूदी नहीं, आफरीदी हैं।"
दरअसल , यह सब पहले उन्हें परी कथाओं जैसा लगता था। पर एक गहन अध्धयन ने लगभग यह स्थापित कर दिया है की बहुत कम आबादी वाले आफरीदी पठान इज्राईलीयों के वंशज हैं। एक नौजवान नवरस आफरीदी के किए इस अध्धयन में , जिसे दा इंडियन ज्यूरी एंड दा सेल्फ-प्रोफेस्द लौस्त त्रैब्ज़ ऑफ इज्रैल नाम से ई-बुक के रूप में प्रकाशित किया गया है , इस बात की पुष्टी की गयी है की खान जिसे परी कथा समझते थे, वह हकीकत है। शोध के अनुसार, आफरीदी पठान इसराइल के लुप्त कबीलों में से एक के वंशज हैं। नवरस कहते हैं, "शोध का मुख्य उद्देश्य आफरीदी पठानों की वंश परम्परा को खोजने के अलावा मुसलमानों और यहूदियों के सम्बंदों के मिथक का पता लगाना था। अपने लंबे अध्धयन से में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की यहूदियों के प्रति मुसलमानों की घृणा या मुसलमानों के प्रति यहूदियों की घृणा ज्यादातर सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है।" नवरस यह दावा भी करते हैं की दूसरे कई देशों में अपने सह्धार्मियों के विपरीत भारत के यहूदियों की स्थिति कुल मिलाकर सुखद है। भारत में यहूदियों के ३४ धर्मस्थल हैं, जिनमें से कईयों के प्रभारी मुसलमान हैं, जबकी मुम्बई में मुसलमान लड़कियों के लिए बने शैक्षिक संस्थान अंजुमन-ऐ-इस्लाम की प्रिन्सेपल यहूदी महिला थीं।darasl
नवरस का अध्धयन रोचक और कुछ हद तक मार्को पोलो के डिस्क्रिप्शन ऑफ़ डी वर्ल्ड की तरह प्रमाणिक है । पाकिस्तान के सरहदी सूबों में रहने वाले निष्ठुर पठानों तथा उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद (लख न ऊ) व कायमगंज (फर्रुखाबाद) के आफरीदी पठानों से इसराइल के नाते पर नवरस के सीमित विवरण को लेकर देर-सवेर बहस ज़रूर होगी । खासकर ऐसे समय में जब यहूदियों और मुसलमानों के बीच घृणा नए दौर में प्रवेश कर रही है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इतिहास विभा के पूर्व अध्ध्यक्ष डॉ एस एन सिन्हा और लख न ऊ विश्व विद्यालय के मध्य यौगीन एवं आधुनिक भार्तिये इतिहास विभाग के अध्ध्यक्ष डॉ वी दी पांडे जैसे सरीखे इतिहासकारों और विद्वानों ने नवरस के अध्धयन को भारत के यहूदियों और उत्तर प्रदेश में उनके संपर्कों पर महत्त्व पूर्ण शोध माना है ।
यह अध्यन महज़ सिध्धान्तों और पाठ्य पुस्तकों की कहानियों पर आधारित नहीं है। निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए नवरस एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल बनाया , जिसमें सेंटर ऑफ़ नीयर एंड मिडल ईस्ट स्टडीज़ , लंदन यूनिवर्सिटी और रूस की भाषा वैज्ञानिक एवं इतिहासकार डॉ युलिया एगोरोवा को शामिल किया गया। आफ्रीदियों की इज्राएली वंश-परम्परा की पुष्टी के लिए इस दल ने मलीहाबाद की यात्रा की और पेट्रिक रूप से असम्भद्ध ५० आफरीदी पुरषों के डी एन ऐ नमूने लिए ।
अध्धयन से यह रहस्योद्घाटन हुआ है की कई मुसलमान समूह ख़ुद को इसराइल के कबीलों से जोड़ते हैं। बा ई बिल के मुताबिक , इसराइल (इब्राहिम के पोते याकूब का दूसरा नाम) के १२ कबीले थे, जो दो राज्यों में विभाजित थे - १० कबीलों वाला उत्तेरी राज्य , जिसका नाम इसराइल ही रहने दिया गया, और दक्षिणी राज्य। ईसा पूर्व ७३३ और ७२१ में इसराइल को तहस-नहस कर वहाँ के कबीलों को खदेड़ दिया गया । बाद में इन दस कबीलों को लुप्त मान लिया गया। लेकिन लुप्त कबीलों में से चार को भारत में पाया गया है। यह हैं आफरीदी, शिन्लुंग (पूर्वोत्तर भारत), युदु (कश्मीर) और गुंटूर के गैर-मुस्लिम कबीले । बहादुर योद्धा आफ्रीदियों को पठान, पख्तून और अफगान कहा जाता है और वे सफ़ेद कोह (अफगानिस्तान) तथा पेशावर (पाकिस्तान) की सीमायों के बीच ऊबड़-खाबड़ इलाकों में रहते हैं । इतिहासकारों का मानना है की अफगान इसराइल (याकूब) के वंशज हैं , लेकिन उनका नाम लुप्त कबीलों की सूची में दाल दिया गया । शोध के मुताबिक , पैगम्बर मुहमद के जीवन काल (६२२ ईसवी) में इसराइल के एक दर्जन काबाइली सरदारों कोण इस्लाम में दीक्षित किया गया और जब उन्हें प्रताडित किया जाने लगा टू वह पलायन कर गए, दूरी तरफ़ , कुछ अफान-पठानों का विश्वास है की वह इब्राहीम की दूसरी पत्नी बीबी कटोरा के वंशज हैं और उनके ६ बेटे तूरान (उत्तरी-पश्चिमी ईरान) में जाकर बस गए।
इस तरह वह इस शेत्र में आ गए जिसे उतर-पश्चिमी सीमा प्रांत और अफगानिस्तान के रूप में जाना जाता है। यही नहीं , वह ख़ुद में कानों भी बन गए , तूरान में आने और फिर आगे बढ़ने पर उन्हें फारसी में आफ्रीदन कहा गया, जिसका अर्थ 'नया आया हुआ शख्स' होता है । इस तरह उन्हें आफरीदी की उपाधी मिली । कई आफरीदी पठान अभी भी शबात और जन्म के ठीक आंठवें दिन खतना जैसी यहूदी परम्परा का पालन करते हैं।
मलीहाबाद में पठान आबादी १२०२ ईसवी में बसी थी , जब मुहम्मद बख्तुइयार खल्जी के हमले के बाद बख्तियार नगर बसाया गया। लेकिन ज्यादातर पठान आबादी १७वीन् शताब्दी के मध्य के लगभग आई आई और हर प्रवासी कुनबे ने मलीहाबाद के आस-पास १०-१२ गाँवों पर कब्जा कर लिया । मलीहाबाद में प्रवासी पठानों , खासकर आफ्रीदियों की सबसे बड़ी लहर एक शाब्दी बाद १७४८ और १७६१ के बीच अहमद शाह अब्दाली के ५ हमलों के दौरान आई । सं १७६१ में उन्होंने पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को हरा दिया । उस समय अवध शिया नवाबों के आधीन था , जो नजफ़ के विख्यात सैय्यद परिवार के वंशज थे। मलेहाबाद और कायमगंज के कई इज्राएली - आफरीदी तलवार और कलम के बल बल पर काफ़ी मशहूर हुए। उन्होंने युद्ध, राजीती , साहित्य और खेलकूद में भी काफ़ी नाम कमाया। भारत के त्रितिये राष्ट्रपति और जामिया millia इस्लामिया के संस्थापक इज्राएली पठन डॉ जाकिर हुसैन फर्रुखाबाद के थे, इसी तरह मलीहाबाद के शायर और अवध के दरबारी, फौज के कमांडर तथा खैराबाद के गवर्नर नवां फकीर मुहम्मद खान 'गोया', बागी शायर जोश मलीहाबादी , टेनिस खिलाडी गॉस मुहमद खान और रंग कर्मी , लेखक व शायर अनवर नदीम पर इस इलाके को गर्व है। ख़ुद को बनी इसराइल(इसराइल की संतान) कहने वाले इज्राएली पठान अलीगढ और संभल में बस आये, अलीगढ़ के मौजूदा काजी मुहम्मद अजमल भी इज्राएली मूल के हैं।
कई लोगों का मानना है की युवा विद्वान् नवरस का अध्धयन मलीहाबाद के अनुवांशिक-ऐतिहासिक शोध में मील का पत्थर साबित हो सकताहै जो उसे इसराइल के कई लुप्त कबीलों के ज़माने से जोदेगा। बहरहाल , लखनऊ के एक कोने में यह कड़ी पायी गई है।
1 comment:
Nice post
But
Brother I take knowledge of Pashtun history o
Yosafzai
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